जवाबदेह और चुस्त प्रशासन ही सुशासन के मानक बनते हैं। इस दृष्टि से हिमाचल प्रदेश में जनता को एक नया मंच मिला है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था का इच्छाशक्ति से दिया हुआ आधुनिक औजार भी है। तय समय सीमा में लोकसेवा को सुनिश्चित करने वाला मंत्रिमंडल की ओर से स्वीकृतिप्राप्त नियम से एक नई व्यवस्था बनेगी जो जनता को राहत देगी और समय प्रबंधन का आनंद भी। यह और बात है कि अभी इसमें 11 विभाग लिए गए हैं जिनके 27 महत्वपूर्ण काम इसमें दर्ज किए गए हैं। यह व्यवस्था समय की मांग इसलिए थी क्योंकि सुशासन की मांग के लिए देशभर में नया वातावरण बन रहा है और जनापेक्षाएं अब केवल घोषणाओं और आश्वासनों से पूरी नहीं होती। एक नई चेतना का संचार हुआ है जो दीर्घकालिक प्रभाव डालने की क्षमता भी रखती है। इसके तहत विभिन्न प्रकार के प्रमाणपत्र और अन्य दस्तावेज तैयार करने के लिए एक समयसीमा बांधी गई है जिससे बंधना विभिन्न विभागों का दायित्व बन जाएगा। नालागढ़ और रेणुका जी में जारी उपचुनाव आचार संहिता के समाप्त होते ही अधिसूचना लागू हो जाएगी। कोई कुछ भी कहे, इससे कार्यसंस्कृति में अंतर आएगा। यूं कहें कि कार्यसंस्कृति आएगी। इसका लाभ सरकार को भी मिलेगा। अब भी कई विभाग और अधिकारी ऐसे हैं जिनमें काम के लिए जाने वाले व्यक्ति को यह भरोसा नहीं होता कि उसका काम तय सीमा में हो ही जाएगा। विलंब का कारण बनने वाली उदासीनता किसी एक अधिकारी या कर्मचारी के स्तर पर होती है लेकिन कसौटी पर सरकार और प्रदेश के नीति नियंता होते हैं। सदिच्छाओं के बावजूद किसी एक कार्यालय से खफा जनता पूरे शासन के लिए प्रमाणपत्र बांट देती है। जनता अपने स्थान पर इसलिए ठीक है क्योंकि उसके साथ तो वादा त्वरित और तत्काल सेवा का हुआ होता है। इस पक्ष को आसान करने के लिए सूचना और तकनीकी का विकास भी साथ निभाने को तत्पर दिखता है। सवाल यह है कि कि मंत्रिमंडल ने तो एक व्यवस्था कर दी है लेकिन अब इन नियमों का पालन करना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसमें जनता की भागीदारी भी अपेक्षित है। अधिकार मिला है तो उसका प्रयोग भी राज्य की बेहतरी के लिए होना चाहिए। जो कर्मचारी या अधिकारी नियम का पालन नहीं करता उसके बारे में मौन न साधा जाए। सरकार भी यह सुनिश्चित करे संबंधित विभागों में मानव संसाधन की कमी न हो ताकि नियम का सम्मान हो सके।
URDU PRABHANJAN SANKET NEWSPAPER
Sunday, 20 November 2011
जवाबदेही का दौर
जवाबदेह और चुस्त प्रशासन ही सुशासन के मानक बनते हैं। इस दृष्टि से हिमाचल प्रदेश में जनता को एक नया मंच मिला है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था का इच्छाशक्ति से दिया हुआ आधुनिक औजार भी है। तय समय सीमा में लोकसेवा को सुनिश्चित करने वाला मंत्रिमंडल की ओर से स्वीकृतिप्राप्त नियम से एक नई व्यवस्था बनेगी जो जनता को राहत देगी और समय प्रबंधन का आनंद भी। यह और बात है कि अभी इसमें 11 विभाग लिए गए हैं जिनके 27 महत्वपूर्ण काम इसमें दर्ज किए गए हैं। यह व्यवस्था समय की मांग इसलिए थी क्योंकि सुशासन की मांग के लिए देशभर में नया वातावरण बन रहा है और जनापेक्षाएं अब केवल घोषणाओं और आश्वासनों से पूरी नहीं होती। एक नई चेतना का संचार हुआ है जो दीर्घकालिक प्रभाव डालने की क्षमता भी रखती है। इसके तहत विभिन्न प्रकार के प्रमाणपत्र और अन्य दस्तावेज तैयार करने के लिए एक समयसीमा बांधी गई है जिससे बंधना विभिन्न विभागों का दायित्व बन जाएगा। नालागढ़ और रेणुका जी में जारी उपचुनाव आचार संहिता के समाप्त होते ही अधिसूचना लागू हो जाएगी। कोई कुछ भी कहे, इससे कार्यसंस्कृति में अंतर आएगा। यूं कहें कि कार्यसंस्कृति आएगी। इसका लाभ सरकार को भी मिलेगा। अब भी कई विभाग और अधिकारी ऐसे हैं जिनमें काम के लिए जाने वाले व्यक्ति को यह भरोसा नहीं होता कि उसका काम तय सीमा में हो ही जाएगा। विलंब का कारण बनने वाली उदासीनता किसी एक अधिकारी या कर्मचारी के स्तर पर होती है लेकिन कसौटी पर सरकार और प्रदेश के नीति नियंता होते हैं। सदिच्छाओं के बावजूद किसी एक कार्यालय से खफा जनता पूरे शासन के लिए प्रमाणपत्र बांट देती है। जनता अपने स्थान पर इसलिए ठीक है क्योंकि उसके साथ तो वादा त्वरित और तत्काल सेवा का हुआ होता है। इस पक्ष को आसान करने के लिए सूचना और तकनीकी का विकास भी साथ निभाने को तत्पर दिखता है। सवाल यह है कि कि मंत्रिमंडल ने तो एक व्यवस्था कर दी है लेकिन अब इन नियमों का पालन करना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसमें जनता की भागीदारी भी अपेक्षित है। अधिकार मिला है तो उसका प्रयोग भी राज्य की बेहतरी के लिए होना चाहिए। जो कर्मचारी या अधिकारी नियम का पालन नहीं करता उसके बारे में मौन न साधा जाए। सरकार भी यह सुनिश्चित करे संबंधित विभागों में मानव संसाधन की कमी न हो ताकि नियम का सम्मान हो सके।
Wednesday, 5 October 2011
हर राज्य में कुछ अलग रंग है विजयादशमी का
भारत में विजयादशमी प्रमुख त्योहारों में से एक है। मगर इस पर्व के भी विविध रंग हैं
कर्नाटक में दशहरे के दिन आयुध पूजा की जाती हैं जिसमें किसी देवी
ओडीशा में दशहरा दो तरीके से मनाया जाता है। यहां के सारे शक्ति
तेलुगु घरों में विजयादशमी का काफी महत्व है। जीवन से जुड़ी हर चीज
मदिकेरी दशहरा का इतिहास लगभग सौ साल पुराना है। यहां का दशहरा बिल्कुल अलग होता हैं। विजयादशमी की रात यहां के दस मंदिरों से दस रथयात्रा निकाली जाती है। विजयादशमी की रात रावण
महाराष्ट्र में विजयादशमी के दिन लोग एक दूसरे के घर जाकर बधाई देते हैं और मिठाई बांटते हैं। इस दिन लोग आपता पेड़ की पूजा कर उसके सुनहरे पत्ते आपस में बांटते हैं। यह पत्ता सोने
नेपाल में विजयादशमी का बहुत महत्व है। इस दिन को नेपाल में दर्शन कहा जाता है। एक समय में इस दिन नेपाल के राजा लोगों के माथे पर तिलक लगाकर विजयादशमी की बधाई देते थे। आज भी यह मान्यता है कि बड़े अपने से छोटे के माथे पर तिलक लगाकर उन्हें इस दिन की बधाई देते हैं।
केरल में विजयादशमी को शिक्षा की शुरुआत का दिन माना जाता है। नवरात्र के आठवें दिन छात्र अपनी किताबें और किसान, जो अलग-अलग राज्यों में अपनी परम्पराओं में दिखते हैं। दशहरे की सतरंगी धूम से कई राज्य रंग जाते हैं। लोग भगवान राम की अच्छाइयों को याद कर बुराइयों के खत्म होने की कामना करते हैं। देश भर में पुतलों का दहन इसी भावना का प्रतीक है। कहीं रामलीला का मंचन, तो कहीं भव्य पंडालों में मां दुर्गा की प्रतिमा का स्थापना, तो कहीं नौ देवियों के अलग-अलग रूपों की पूजा। हर समुदाय की अपनी परम्परा। उत्तराखंड के कुमांऊ में तो दशहरे का अनोखा रूप ही दिखता है। इस तरह विजयादशमी को देश भर में अलग-अलग रूपों में मनते देखना देश और विदेश के पर्यटकों के लिए एक अनोखा अनुभव है।-देवता की पूजा नहीं होती बल्कि किताबें, गाड़ियां और रसोई के सामान की पूजा की जाती है। महाराष्ट्र में भी कहीं-कहीं ऐसी पूजा होती है। पढ़ने-लिखने वाले लोग अपनी किताबें, कलम और कम्प्यूटर की पूजा करते हैं, वहीं किसान अपने खेतों में इस्तेमाल आने वाले औजार की पूजा करते हैं। बड़ी-बड़ी फैक्टरियों में मशीनों की पूजा होती है, तो ट्रांसपोर्ट में काम करने वाले अपनी बसों, कारों और ट्रकों की पूजा करते हैं। इन्हें फूलों से सजाकर पूजा की जाती है और लोग आने वाले सालों में तरक्की की कामना करते हैं।-पीठ में दस दिन तक मां दुर्गा की पूजा-अर्जना की जाती है और पूरे शहर में मां दुर्गा की यात्रा निकाली जाती है। इन दिनों की जाने वाली पूजा को लोग अपराजिता पूजा कहते हैं। पूजा के बाद नम आंखों से मां दुर्गा को विदाई दी जाती है। प्रतिमा विसर्जन के बाद विजयादशमी मनाई जाती है, जिसे ‘रावण पोडी‘ कहा जाता है। जिसमें रावण के पुतले का दहन किया जाता है। तेलंगाना में विजयादशमी के दिन लोग साहसिक कार्य करने की शुरुआत करते हैं। लोगों का मानना हैं कि इस दिन से अच्छे काम की शुरुआत हमेशा सफल होती है। लोग इस दिन नए कपड़े पहनते हैं। मां दुर्गा के मंदिर जाकर पूजा-अर्जना करते हैं।, चाहे वह बिजनेस हो, नया घर खरीदना या नई गाड़ी हरेक की शुरुआत विजयादशमी से की जाती हैं। इस दिन लोग नई चीजों की पूजा कर उसे पवित्र करते हैं। शाम में लोग रामायण के पात्रों के अनुसार वस्त्र पहन कर स्टेज शो का आयोजन करते हैं। विजयादशमी के दिन यहां रावण और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं, जो भगवान राम की विजयगाथा को दर्शाते हैं। नवरात्र के दौरान विजयवाड़ा में कृष्णा नदी के किनारे बेहद पुराना मंदिर ‘श्री दुर्गा मल्लेश्वर स्वामी‘ के पास दशहरा नवरात्री मनाई जाती है। हजारों श्रद्धालु इस दौरान दर्शन करने आते हैं। विजयादशमी के दिन ‘टेप्पा उत्सवम‘ मनाया जाता है जिसमंे दुर्गा की प्रतिमा को बड़ी सी नाव पर स्थापित कर फूलों और रौशनी से सजाया जाता है। आंध्र प्रदेश के लोग इस प्रतिमा के दर्शन कर नया काम शुरू करते हैं।, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले जलाए जाते हैं। यहां के लोग भी इस दिन अपनी नई गाड़ियों, मशीनों, किताबों, औजारों और शस्त्रों की पूजा कर भगवान से आशीर्वाद मांगते हैं।(गोल्ड) का प्रतीक होता है और एक दूसरे के सुनहरे भविष्य की कामना करता हैं। यह सुनहरा पत्ता बांटने की परंपरा भगवान राम और कुबेर के पूर्वजों से चली आ रही है।-मजदूर अपने औजार मां दुर्गा के चरणों में पूजा के लिए रखते हैं और विजयादशमी के दिन इसे उठाते हैं। केरल में जो लोग हिंदू नहीं हैं, वे भी इस परंपरा को निभाते हैं। 2004 से कई गिरजाघरों मंे भी इस परम्परा को अपनाया है और दशहरे के दिन शिक्षा देने की शुरुआत की है। दशहरा नवरात्र के त्योहार का समापन माना जाता है। इस दिन मां दुर्गा की प्रतिमा को विसर्जित कर आने वाले समय में सुख-शांति की कामना की जाती है।
Sunday, 2 October 2011
महान थे इसीलिए ‘महात्मा‘ कहलाए
‘
देश की सेवा
गांधी जी ने बिहार के तिहका ग्राम में विद्यालय खुलवाया जिसके उद्घाटन समारोह में उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी भी शमिल हुई थीं। उद्घाटन समारोह में महिलाओं और बच्चों की भारी भीड़ हर्षोल्लास के साथ उमड़ रही थी। गांधी जी प्रफुल्लित महिलाओं को देखकर बा से बोलेवैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर परायी जानी रे‘... इस भजन के साथ ही हमारी आंखों में एक छवि उभरती है वह है एक महात्मा की छवि। आधी धोती में लिपटा, चरखा कातता एक कृशकाय शरीर, लेकिन अतीव शक्ति सम्पन्न, दृढ़, अड़िग और निडर व्यक्तित्व जिसने इस भजन को जीवन में धारण किया था अर्थात जो दूसरों की पीड़ा को जाने, पहचाने, जिये, आत्मसात करे वही तो सच्चा मानव है। महात्मा जो महामानव थे, वे हर दुःख की पीड़ा को जीते थे और हर सज्जन की व्यथा को पीते थे, तभी तो वे इस भजन को गा सके थे।, उनके लिए देश के असहाय और कमजोर वर्ग की सेवा थी। ‘मेरे सपनों का भारत‘ पुस्तक में वे लिखते हैं कि ‘मेरे लिए देश प्रेम और मानव प्रेम में कोई भेद नहीं है दोनों एक ही हैं। मैं देश प्रेमी हूं क्योंकि मानव प्रेमी हूं।‘ निर्धनता से जूझते व्यक्तियों से कहते हैं कि, ‘मनुष्य जाति ईश्वर को जिन नामों से पहचानती है उनमें से एक नाम दरिद्र नारायण है, उसका अर्थ है गरीबों का या गरीबों के हृदय में प्रकट होने वाला ईश्वर।‘ हम महात्मा को पहचानते हैं कहीं उनके गोल चश्मे से, कहीं उनकी लाठी से, कहीं उनके चरखे से और कहीं उनकी धोती से। महात्मा का चरखा और उनकी धोती दोनों का ही संबंध उनके मन की विशाल मानवता से ही है।, ‘कस्तूरबा, उन महिलाओं की धोतियां देखो कितनी मैली हैं?‘ मेरा विचार है कि तुम उन महिलाओं के पास जाकर उन्हें स्वच्छ वस्त्रों का महत्व समझाओ। कस्तूरबा उन महिलाओं के बीच गयीं और उनसे कहा कि हमें आपसे कुछ बात करनी है। महिलाओं ने कहां, हां क्यों नहीं?‘ कस्तूरबा ने उन महिलाओं की अनुमति प्राप्त कर कहा कि, ‘यदि शरीर स्वच्छ रखा जाए तो वह स्वस्थ रहेगा और शरीर स्वस्थ्य रहेगा तो मन भी स्वस्थ रहेगा।‘ उन्होंने स्पष्ट किया कि, ‘शरीर को स्वच्छ रखने के साथ ही जरूरी है उस पर पहने गये वस्त्र को स्वच्छ रखना।‘ तब महिलाओं ने कहा कि, ‘इसके लिए आपको हमारी झोपड़ियों में चलना होगा। ‘उनके अनुरोध पर बा उनकी झोपड़ियों में गयीं। एक महिला ने बा से कहा कि, ‘आप धोतियां धोने के विषय में हमसे कहना चाहती हैं ना‘ उन्होंने बा को बताया कि, ‘हमारे पास धोतियां नहीं हैं। धोने के बाद यह धोती सुखाकर पहननी होती है, इसलिए इसे हम प्रतिदिन धो नहीं सकते।‘ कस्तूरबा ने गांधी जी से कहा कि, ‘इन महिलाओं के पास दूसरी धोतियां ही नहीं हैं। जो वे इन धोतियों को रोज धो सकें।‘इस घटना ने गांधी जी को विचलित कर दिया तथा वे कई दिनों तक उन महिलाओं की स्थिति पर विचार करते रहे। कुछ दिनों बाद गांधी जी को रेलगाड़ी से मदुरै जाना पड़ा डिब्बे में अनेक यात्रियों को देखा जो विदेशी वस्त्रों को पहने थे। यह देखकर गांधी जी का स्वदेश प्रेमी मन शांत न रह सका और वे उन यात्रियों के पास पहुंच कर बात करने लगे कि, ‘आप सभी लोगों ने विदेशी वस्त्रों को पहन रखा है, जब हम अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं तब हमें विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करना चाहिए।‘ उन यात्रियों ने गांधी जी से कहा कि, ‘हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम महंगी खादी पहन सकें।‘अपनी विभिन्न यात्राओं के दौरान गांधी जी ने देखा कि
उन्होंने कहा कि ‘देश में हजारों लाखों लोग ऐसे हैं जो सिर्फ बड़ी मुश्किल से लंगोटी की व्यवस्था कर पाते हैं।‘ गहन विचार के बाद गांधी जी ने गरीबों का दुःख बांटने के लिए वस्त्रों का परित्याग कर ‘आधी धोती‘ को धारण कर लिया। उन्होंने निर्णय लिया कि, ‘जब तक देश में एक भी नागरिक ऐसा है जिसके पास पूरा तन ढकने को वस्त्र न हो तब तक मैं इस आधी धोती में रहूंगा।‘ इस संकल्प को गांधी जी ने जीवन पर्यन्त निभाया। महंगी खादी व बेरोजगारी की बात गांधी जी के मन को हर समय कचोटती रहती थी। इन दोनों विषयों पर लम्बे समय तक विचार करने के बाद गांधी जी ने चरखे को अपनाने की बात कही।‘हाथ की कताई और हाथ की बुनाई के पुर्नजीवन से भारत के आर्थिक और नैतिक पुनरुद्धार में सबसे बड़ी सहायता मिलेगी।‘ करोड़ों को भूखों मरने से बचाना हो तो उन्हें इस योग्य बनाना पड़ेगा कि वे अपने घरों में फिर से कताई जारी कर सकें और हर गांव को अपना ही बुनकर वापस मिल जाए।‘ चरखे के सम्मान का दावा करते हुए कहा कि, ‘वह हमारी गरीबी की समस्या को लगभग बिना कुछ खर्च किए और बिना किसी दिखावे के अत्यंत स्वाभाविक ढंग से हल कर सकता है।‘ गांधी जी ने कहा कि, ‘चरखा एक ऐसी आवश्यक चीज है जो हर घर में होना ही चाहिए। वह राष्ट्र की समृद्धि और उसकी आजादी का प्रतीक है। गांधी जी के आश्रम में चरखा कातना अनिवार्य था।‘
वह व्यक्ति जिन परिस्थितियों मंे गांधी जी को सड़क पर मिला उन्हांेने गांधीजी को इतना व्यथित किया कि उन्होंने वहीं के एक निवासी डाॅ
गांधी जी ने स्त्रियों की सामाजिक स्थिति सुधारने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्त्रियों को परदे से बाहर लानासेवा‘ गांधी जी के व्यक्तित्व का एक ऐसा पक्ष था जो उनकी मानवीय ‘संवेदना‘ और ‘करूणा‘ को नये आयाम देता है। दक्षिण अफ्रीका के नाटाल नामक स्थान पर गांधी जी ने एक बड़ा सा मकान किराए पर लिया। एक दिन सुबह-सुबह गांधी जी घर से बाहर निकले उन्हें एक कोढ़ी व्यक्ति सड़क पर मिला गांधी जी ने उससे पूछा, ‘अरे आप सड़क पर‘ तब कोढ़ी व्यक्ति बोला, ‘मेरा शरीर देखकर आपको नहीं लगता कि अब इस सड़क के अलावा मेरा कोई स्थान नहीं है। कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति को घर में कौन रखेगा।‘ गांधी जी ने कहा नहीं नहीं, ऐसा न कहें। ‘आइये, मेरे साथ आइये, मेरे घर में आपके लिए स्थान है‘ और इस प्रकार गांधीजी उस वृद्ध कुष्ठ रोगी को अपने घर ले आये। घर लाकर उन्होंने अपने हाथों से उसके घाव साफ किये, दवा लगाई। कुछ समय बाद उस व्यक्ति को अस्तपाल भेजना पड़ा। इससे गांधी जी को काफी कष्ट हुआ।. बूथसेन्ट एडम्स की देखरेख में एक दातव्य अस्पताल खोल दिया जहां दीन-दुखियों की सेवा की जाती थी। गांधीजी स्वयं अपना बचा हुआ समय इस अस्पताल में सेवा कार्य के लिए देते थे। सेवा कार्यों ने गांधीजी को इतना संतोष और आत्मसुख दिया कि उनकी जीवन शैली ही बदल गयी। वे एकदम सादगीपूर्ण जीवन जीने लगे। यहीं से उनके मन में आश्रम बनाने का विचार आया। उन्होंने अपना एक आश्रम दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स नामक स्थान पर बनाया और फिर भारत वापस आने पर भी वे आश्रम बनाकर ही रहे।, उनकी शिक्षा के महत्व पर जोर देना, उनको निर्णय लेने का अधिकार दिलाना, यहीं नहीं गांधी जी ने उन्हें आजादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। इन सबके पीछे महात्मा की मानवता मूलक भावना ही थी। स्त्रियों के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए महात्मा कहते हैं, ‘स्त्रियों के अधिकारों के प्रश्न पर मैं किसी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं कर सकता। उन पर ऐसा कोई भी कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए।‘महात्मा की अछूतोद्धार की संकल्पना भी उनके विशाल हृदय की परिचायक है। साबरमती आश्रम में उन्होंने हर कुल में जन्मे व्यक्ति के लिए समान अधिकार की व्यवस्था की। समाज के उपेक्षित और पिछड़े लोगों को उन्होंने ईश्वर की संतान का दर्जा देते हुए ‘हरिजन‘ नाम दिया। उन्हें आगे बढ़ाने और विश्वास जगाने के लिए महात्मा ने ‘हरिजन‘ नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन भी किया। महात्मा का हृदय मानवता और मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत था। पराधीनता से मुक्ति पाने के लिए भी उन्होंने अहिंसा, सत्याग्रह और अनशन का ऐसा मार्ग चुना कि वे क्रूर अंग्रेजों के हृदय में भी मानवीय भावों का संचरण कर सके। गांधीजी के अनुसार किसी मनुष्य को किसी दूसरे पर शासन करने का अधिकार नहीं है। ‘आमरण अनशन‘ भावांे को जगाने का एक ऐसा साधन बनकर उभरा कि पूरी दुनिया पर शासन करने वाले अंग्रेज भी हिल गये। यह मानवीय भाव ही था कि लोग सब कुछ छोड़ उनके पीछे चल दिए। पूरा देश उठ खड़ा हुआ था, एक क्षीण सी काया के नेतृत्व में क्योंकि इस क्षीण सी काया में एक विराट मानव हृदय था जिसमें सभी को समाहित कर लेने की क्षमता थी। ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, जाति, धर्म सबका भेदभाव मिटा महात्मा सबको गले लगा सके, सबको प्रेम दे सके, सबका प्रेम पा सके, वही प्रेम उनकी शक्ति बना इसलिए वे बापू बन सके और गा सके- ‘वैष्णव जन ते तेने कहिए, जो पीर परायी जाने रे।‘
देश की सेवा
गांधी जी ने बिहार के तिहका ग्राम में विद्यालय खुलवाया जिसके उद्घाटन समारोह में उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी भी शमिल हुई थीं। उद्घाटन समारोह में महिलाओं और बच्चों की भारी भीड़ हर्षोल्लास के साथ उमड़ रही थी। गांधी जी प्रफुल्लित महिलाओं को देखकर बा से बोलेवैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर परायी जानी रे‘... इस भजन के साथ ही हमारी आंखों में एक छवि उभरती है वह है एक महात्मा की छवि। आधी धोती में लिपटा, चरखा कातता एक कृशकाय शरीर, लेकिन अतीव शक्ति सम्पन्न, दृढ़, अड़िग और निडर व्यक्तित्व जिसने इस भजन को जीवन में धारण किया था अर्थात जो दूसरों की पीड़ा को जाने, पहचाने, जिये, आत्मसात करे वही तो सच्चा मानव है। महात्मा जो महामानव थे, वे हर दुःख की पीड़ा को जीते थे और हर सज्जन की व्यथा को पीते थे, तभी तो वे इस भजन को गा सके थे।, उनके लिए देश के असहाय और कमजोर वर्ग की सेवा थी। ‘मेरे सपनों का भारत‘ पुस्तक में वे लिखते हैं कि ‘मेरे लिए देश प्रेम और मानव प्रेम में कोई भेद नहीं है दोनों एक ही हैं। मैं देश प्रेमी हूं क्योंकि मानव प्रेमी हूं।‘ निर्धनता से जूझते व्यक्तियों से कहते हैं कि, ‘मनुष्य जाति ईश्वर को जिन नामों से पहचानती है उनमें से एक नाम दरिद्र नारायण है, उसका अर्थ है गरीबों का या गरीबों के हृदय में प्रकट होने वाला ईश्वर।‘ हम महात्मा को पहचानते हैं कहीं उनके गोल चश्मे से, कहीं उनकी लाठी से, कहीं उनके चरखे से और कहीं उनकी धोती से। महात्मा का चरखा और उनकी धोती दोनों का ही संबंध उनके मन की विशाल मानवता से ही है।, ‘कस्तूरबा, उन महिलाओं की धोतियां देखो कितनी मैली हैं?‘ मेरा विचार है कि तुम उन महिलाओं के पास जाकर उन्हें स्वच्छ वस्त्रों का महत्व समझाओ। कस्तूरबा उन महिलाओं के बीच गयीं और उनसे कहा कि हमें आपसे कुछ बात करनी है। महिलाओं ने कहां, हां क्यों नहीं?‘ कस्तूरबा ने उन महिलाओं की अनुमति प्राप्त कर कहा कि, ‘यदि शरीर स्वच्छ रखा जाए तो वह स्वस्थ रहेगा और शरीर स्वस्थ्य रहेगा तो मन भी स्वस्थ रहेगा।‘ उन्होंने स्पष्ट किया कि, ‘शरीर को स्वच्छ रखने के साथ ही जरूरी है उस पर पहने गये वस्त्र को स्वच्छ रखना।‘ तब महिलाओं ने कहा कि, ‘इसके लिए आपको हमारी झोपड़ियों में चलना होगा। ‘उनके अनुरोध पर बा उनकी झोपड़ियों में गयीं। एक महिला ने बा से कहा कि, ‘आप धोतियां धोने के विषय में हमसे कहना चाहती हैं ना‘ उन्होंने बा को बताया कि, ‘हमारे पास धोतियां नहीं हैं। धोने के बाद यह धोती सुखाकर पहननी होती है, इसलिए इसे हम प्रतिदिन धो नहीं सकते।‘ कस्तूरबा ने गांधी जी से कहा कि, ‘इन महिलाओं के पास दूसरी धोतियां ही नहीं हैं। जो वे इन धोतियों को रोज धो सकें।‘इस घटना ने गांधी जी को विचलित कर दिया तथा वे कई दिनों तक उन महिलाओं की स्थिति पर विचार करते रहे। कुछ दिनों बाद गांधी जी को रेलगाड़ी से मदुरै जाना पड़ा डिब्बे में अनेक यात्रियों को देखा जो विदेशी वस्त्रों को पहने थे। यह देखकर गांधी जी का स्वदेश प्रेमी मन शांत न रह सका और वे उन यात्रियों के पास पहुंच कर बात करने लगे कि, ‘आप सभी लोगों ने विदेशी वस्त्रों को पहन रखा है, जब हम अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं तब हमें विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करना चाहिए।‘ उन यात्रियों ने गांधी जी से कहा कि, ‘हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम महंगी खादी पहन सकें।‘अपनी विभिन्न यात्राओं के दौरान गांधी जी ने देखा कि
उन्होंने कहा कि ‘देश में हजारों लाखों लोग ऐसे हैं जो सिर्फ बड़ी मुश्किल से लंगोटी की व्यवस्था कर पाते हैं।‘ गहन विचार के बाद गांधी जी ने गरीबों का दुःख बांटने के लिए वस्त्रों का परित्याग कर ‘आधी धोती‘ को धारण कर लिया। उन्होंने निर्णय लिया कि, ‘जब तक देश में एक भी नागरिक ऐसा है जिसके पास पूरा तन ढकने को वस्त्र न हो तब तक मैं इस आधी धोती में रहूंगा।‘ इस संकल्प को गांधी जी ने जीवन पर्यन्त निभाया। महंगी खादी व बेरोजगारी की बात गांधी जी के मन को हर समय कचोटती रहती थी। इन दोनों विषयों पर लम्बे समय तक विचार करने के बाद गांधी जी ने चरखे को अपनाने की बात कही।‘हाथ की कताई और हाथ की बुनाई के पुर्नजीवन से भारत के आर्थिक और नैतिक पुनरुद्धार में सबसे बड़ी सहायता मिलेगी।‘ करोड़ों को भूखों मरने से बचाना हो तो उन्हें इस योग्य बनाना पड़ेगा कि वे अपने घरों में फिर से कताई जारी कर सकें और हर गांव को अपना ही बुनकर वापस मिल जाए।‘ चरखे के सम्मान का दावा करते हुए कहा कि, ‘वह हमारी गरीबी की समस्या को लगभग बिना कुछ खर्च किए और बिना किसी दिखावे के अत्यंत स्वाभाविक ढंग से हल कर सकता है।‘ गांधी जी ने कहा कि, ‘चरखा एक ऐसी आवश्यक चीज है जो हर घर में होना ही चाहिए। वह राष्ट्र की समृद्धि और उसकी आजादी का प्रतीक है। गांधी जी के आश्रम में चरखा कातना अनिवार्य था।‘
वह व्यक्ति जिन परिस्थितियों मंे गांधी जी को सड़क पर मिला उन्हांेने गांधीजी को इतना व्यथित किया कि उन्होंने वहीं के एक निवासी डाॅ
गांधी जी ने स्त्रियों की सामाजिक स्थिति सुधारने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्त्रियों को परदे से बाहर लानासेवा‘ गांधी जी के व्यक्तित्व का एक ऐसा पक्ष था जो उनकी मानवीय ‘संवेदना‘ और ‘करूणा‘ को नये आयाम देता है। दक्षिण अफ्रीका के नाटाल नामक स्थान पर गांधी जी ने एक बड़ा सा मकान किराए पर लिया। एक दिन सुबह-सुबह गांधी जी घर से बाहर निकले उन्हें एक कोढ़ी व्यक्ति सड़क पर मिला गांधी जी ने उससे पूछा, ‘अरे आप सड़क पर‘ तब कोढ़ी व्यक्ति बोला, ‘मेरा शरीर देखकर आपको नहीं लगता कि अब इस सड़क के अलावा मेरा कोई स्थान नहीं है। कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति को घर में कौन रखेगा।‘ गांधी जी ने कहा नहीं नहीं, ऐसा न कहें। ‘आइये, मेरे साथ आइये, मेरे घर में आपके लिए स्थान है‘ और इस प्रकार गांधीजी उस वृद्ध कुष्ठ रोगी को अपने घर ले आये। घर लाकर उन्होंने अपने हाथों से उसके घाव साफ किये, दवा लगाई। कुछ समय बाद उस व्यक्ति को अस्तपाल भेजना पड़ा। इससे गांधी जी को काफी कष्ट हुआ।. बूथसेन्ट एडम्स की देखरेख में एक दातव्य अस्पताल खोल दिया जहां दीन-दुखियों की सेवा की जाती थी। गांधीजी स्वयं अपना बचा हुआ समय इस अस्पताल में सेवा कार्य के लिए देते थे। सेवा कार्यों ने गांधीजी को इतना संतोष और आत्मसुख दिया कि उनकी जीवन शैली ही बदल गयी। वे एकदम सादगीपूर्ण जीवन जीने लगे। यहीं से उनके मन में आश्रम बनाने का विचार आया। उन्होंने अपना एक आश्रम दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स नामक स्थान पर बनाया और फिर भारत वापस आने पर भी वे आश्रम बनाकर ही रहे।, उनकी शिक्षा के महत्व पर जोर देना, उनको निर्णय लेने का अधिकार दिलाना, यहीं नहीं गांधी जी ने उन्हें आजादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। इन सबके पीछे महात्मा की मानवता मूलक भावना ही थी। स्त्रियों के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए महात्मा कहते हैं, ‘स्त्रियों के अधिकारों के प्रश्न पर मैं किसी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं कर सकता। उन पर ऐसा कोई भी कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए।‘महात्मा की अछूतोद्धार की संकल्पना भी उनके विशाल हृदय की परिचायक है। साबरमती आश्रम में उन्होंने हर कुल में जन्मे व्यक्ति के लिए समान अधिकार की व्यवस्था की। समाज के उपेक्षित और पिछड़े लोगों को उन्होंने ईश्वर की संतान का दर्जा देते हुए ‘हरिजन‘ नाम दिया। उन्हें आगे बढ़ाने और विश्वास जगाने के लिए महात्मा ने ‘हरिजन‘ नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन भी किया। महात्मा का हृदय मानवता और मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत था। पराधीनता से मुक्ति पाने के लिए भी उन्होंने अहिंसा, सत्याग्रह और अनशन का ऐसा मार्ग चुना कि वे क्रूर अंग्रेजों के हृदय में भी मानवीय भावों का संचरण कर सके। गांधीजी के अनुसार किसी मनुष्य को किसी दूसरे पर शासन करने का अधिकार नहीं है। ‘आमरण अनशन‘ भावांे को जगाने का एक ऐसा साधन बनकर उभरा कि पूरी दुनिया पर शासन करने वाले अंग्रेज भी हिल गये। यह मानवीय भाव ही था कि लोग सब कुछ छोड़ उनके पीछे चल दिए। पूरा देश उठ खड़ा हुआ था, एक क्षीण सी काया के नेतृत्व में क्योंकि इस क्षीण सी काया में एक विराट मानव हृदय था जिसमें सभी को समाहित कर लेने की क्षमता थी। ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, जाति, धर्म सबका भेदभाव मिटा महात्मा सबको गले लगा सके, सबको प्रेम दे सके, सबका प्रेम पा सके, वही प्रेम उनकी शक्ति बना इसलिए वे बापू बन सके और गा सके- ‘वैष्णव जन ते तेने कहिए, जो पीर परायी जाने रे।‘
Subscribe to:
Posts (Atom)